‘फिल्मिस्तान’ और हाल ही में ‘नोटबुक’ जैसी फिल्में बना चुके नितिन कक्कड़ की यह फिल्म भी एक विदेशी फिल्म का एडेप्टेशन है। नितिन कक्कड़ की कोशिश अपनी फिल्मों से हंसाने और मैसेज देने की रही है। यहां उन्होंने कथित ‘आधुनिक’ समाज के जीवन जीने के तौर तरीकों पर एक स्टैंड लेने की कोशिश की है।
ऐसी है फिल्म की कहानी
एक 45 की उम्र का बंदा है जैज। लंदन में रहता है। प्रॉपर्टी डीलिंग का काम करता है। मोटा पैसा कमाता है। रात को पब में जाकर उसे खर्च करता है। जिंदगी के सारे मजे ले रहा है। शादी से उसे डर लगता है, क्योंकि वह शादी और बाद की जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाहता।
फिर भी अचानक उसकी सो कॉल्ड खुशहाल जिंदगी में एक 21 साल की युवती टिया दस्तक देती है। उसके बाद उसकी जिंदगी 360 डिग्री पर पूरी तरह बदल कर रह जाती है। उसके अपने पूरी आजादी के साथ जिंदगी जीने के फंडे और जिंदगी को वाकई प्यार परिवार की जरूरत के साथ के फलसफे के बीच द्वंद शुरू हो जाता है। शुरू में तो जैज, टिया को एक्सेप्ट नहीं करता है पर जब पता चलता है कि टिया भी प्रेग्नेंट है तो उसके बाद उसके रवैए में बदलाव आने लगता है। तब जाकर क्या होता है, फिल्म उस बारे में है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो फिल्म सुकरात की उस बात को सही साबित करती है जिसमें उन्होंने कहा था कि इंसान एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज, परिवार में ही ठीक तरीके से रह सकता है। जंगल में अकेले उसका जीना दुश्वार हो जाएगा। यह बात अलग है कि आज की तेज रफ्तार जिंदगी और समंदर से गहरी ख्वाहिशें लिया इंसान खुदगर्ज सा हो गया है। जिंदगी का मकसद अपनी निजी सहूलियत और मतलब साधने तक सिमट कर रह गया है। नतीजतन समाज तो दूर की बात है, परिवार और अपनों से भी वह दूर होता चला गया है। खासतौर पर नई जनरेशन पर यह आरोप काफी ज्यादा लग रहा है।
नितिन कक्कड़ ने यहां नई जनरेशन से ताल्लुक रखने वाली टिया के जरिए ही कहानी आगे बढ़ाई है। दिलचस्प बात यह है कि टिया प्यार, परिवार और रिश्तेदार को बहुत मिस करती है, जबकि उसके पिता जैज को यह सब नहीं चाहिए। उसकी मां भी हिप्पी लाइफस्टाइल में मलंग और खुश है। उसका बॉयफ्रेंड भी बच्चे की जिम्मेदारी से दूर भाग रहा होता है। टिया के जरिए इन सारे किरदारों के नजरिए में बदलाव लाने के सफर को नितिन कक्कड ने हुसैन और अब्बास दलाल के साथ मिलकर दिलचस्प बनाने की कोशिश की है।
जिस-जिस क्लब में जैज रोजाना रात को पहुंचता है, उसका मालिक उसका दोस्त है। उसकी जिंदगी तो जैज की जीवन शैली का विस्तार है। मगर आगे चलकर अकेलेपन की कीमत उसे कैसे चुकानी पड़ती है वह देख जिसकी आंखें खुलती हैं। फिल्म हंसाते हंसाते अचानक सोचने पर एक हद तक मजबूर करती है। जैज़ वैसा भी नहीं है कि उसे किसी को लेकर फीलिंग नहीं है। अपने बड़े भाई डिम्पी और क्लब के दोस्त को लेकर वह बहुत संजीदा है। जिस सैलून में वह अपने बाल डाई करवाता है, उसकी वहां काम करने वाली रिया के साथ उसकी अच्छी दोस्ती भी है।
दरअसल जैज के रोल में सैफ अली खान हैं। उस तरह के किरदार का जो कंफ्यूज स्टेट होता है, उसे सैफ ने पहले भी पेश किया है ‘कॉकटेल’ और ‘लव आज कल’ जैसी फिल्मों में। बतौर कलाकार यह उनकी मजबूत जमीन है इसे उन्होंने यहां भी खूबी से निभाया है। टिया के रोल में अलाया एफ की पहली फिल्म है। अपने एक्सप्रेशन और संवाद अदायगी के साथ-साथ स्क्रीन प्रेजेंस से वे असर छोड़ती हैं। जैज़ की दोस्त रिया की भूमिका में कुब्रा सैट और भाई डिंपी के रोल में कुमुद मिश्रा ने अच्छा काम किया है। टिया की हिप्पी मां की भूमिका तब्बू ने निभाई है और फ्लौलेस लगी हैं। जैज़ की मां के रोल में फरीदा जलाल की एक अरसे बाद वापसी हुई है। अपने हिस्से के काम को उन्होंने ठीक-ठाक किया है।
दिक्कत फिल्म की राइटिंग से है। किरदारों के पास बहुत ठोस वजहें नहीं हैं कि वह क्यों खास तरह से जिंदगी जीना चाहते हैं? क्यों लंदन में रह रहे लोग पर्सनल स्पेस को लेकर इतने ऑब्सेसिव हो रहें हैं, उसकी तह में कम जाया गया है। उस बहस में फिल्म अगर गहराई से उतरती तो वह आला दर्जे की बन सकती थी। इसके चलते फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में दिलचस्प लगती है, मगर पूरे तौर पर वह दिल को छूने से रह जाती है। फिल्म का कैमरा वर्क अच्छा है। स्क्रीनप्ले में कन्फ्यूजन सा रह गया है। कभी बहुत तेज तो कभी बहुत दोहराव का शिकार फिल्म हुई है। जैज के बार-बार क्लब में जाने का घटनाक्रम बारंबार आया है। उसने फिल्म का अहम हिस्सा खा लिया है। एडिटिंग भी जरा फिल्म को उभारने और खिलने में कारगर साबित नहीं हो पाती है। बहरहाल नितिन कक्कड़ ने एक डीसेंट कहानी पेश की है। आज और कल की जनरेशन की सोच के टकराव को छूने का प्रयास किया है।